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उदु॒ त्यच्चक्षु॒र्महि॑ मि॒त्रयो॒राँ एति॑ प्रि॒यं वरु॑णयो॒रद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॒ शुचि॑ दर्श॒तमनी॑कं रु॒क्मो न दि॒व उदि॑ता॒ व्य॑द्यौत् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud u tyac cakṣur mahi mitrayor ām̐ eti priyaṁ varuṇayor adabdham | ṛtasya śuci darśatam anīkaṁ rukmo na diva uditā vy adyaut ||

पद पाठ

उत्। ऊँ॒ इति॑। त्यत्। चक्षुः॑। महि॑। मि॒त्रयोः॑। आ। एति॑। प्रि॒यम्। वरु॑णयोः। अद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॑। शुचि॑। द॒र्श॒तम्। अनी॑कम्। रु॒क्मः। न। दि॒वः। उत्ऽइ॑ता॑। वि। अ॒द्यौ॒त् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:51» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सोलह ऋचावाले इक्यावनवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्यों को क्या चाहने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशको ! जो तुम लोगों को (त्यत्) वह उत्तम (महि) बड़ा वस्तु वा (वरुणयोः) उदान के समान वर्त्तमान दो सज्जनों का (प्रियम्) प्रिय पदार्थ वा (मित्रयोः) दो मित्रों का अध्यापक और अध्येताओं का वा शरीर के बाहर और भीतर रहनेवाला प्राण वायुओं का (अदब्धम्) अविनष्ट व्यवहार वा (ऋतस्य) सत्य का (शुचि) पवित्र (दर्शतम्) देखने योग्य (दिवः) बिजुली की उत्तेजना से (उदिता) सूर्योदयकाल में (रुक्मः) प्रकाशमान सूर्य के (न) समान (अनीकम्) सेना समूह के समान कार्यसिद्धि का पहुँचानेवाला (चक्षुः) जिससे देखते हैं वह (वि, अद्यौत्) विशेषता से प्रकाशित होता है (आ, उत्, एति) उत्कृष्टता से प्राप्त होता है तो आप लोग (उ) तर्क-वितर्क से विद्वान् होओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य धर्म से यान पाने की इच्छा करते हैं, वे सूर्य के प्रकाश के तुल्य विज्ञान को प्राप्त होते हैं, जो सत्य पदार्थ की विद्या की उन्नति करते हैं, वे सर्वत्र सत्कृत होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशका ! यदि युष्मांस्त्यन्महि वरुणयोः प्रियं मित्रयोरदब्धमृतस्य शुचि दर्शतं दिव उदिता रुक्मो नाऽनीकं महि चक्षुर्व्यद्यौदा उदेति तर्हि भवन्ति उ विद्वांसो भवेयुः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (उ) (त्यत्) तत् (चक्षुः) चष्टेऽनेन तत् (महि) महत् (मित्रयोः) सुहृदोरध्यापकाऽध्येत्रोर्बाह्याभ्यन्तरस्थयोः प्राणयोर्वा (आ) (एति) (प्रियम्) यत्प्रीणाति तत् (वरुणयोः) उदान इव वर्त्तमानयोः (अदब्धम्) अहिंसितम् (ऋतस्य) सत्यस्य (शुचि) पवित्रम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (अनीकम्) सैन्यमिव कार्यसिद्धिप्रापकम् (रुक्मः) रोचमानस्सूर्यः (न) इव (दिवः) विद्युतः सकाशात् (उदिता) सूर्य्योदये (वि) (अद्यौत्) प्रकाशयति ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः धर्मेण यानं प्राप्तुमिच्छन्ति ते सूर्यप्रकाशवत्प्राप्तविज्ञाना जायन्ते ये सत्यस्य पदार्थस्य विद्यामुन्नयन्ति ते सर्वत्र सत्कृता भवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विश्वेदेवाच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे धर्माने (चांगल्या नीतीने) यान प्राप्त करण्याची इच्छा करतात ती सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विज्ञान प्राप्त करतात व जी खऱ्या पदार्थाच्या विद्येची वृद्धी करतात त्यांचा सर्वत्र सत्कार होतो. ॥ १ ॥